Tuesday, November 27, 2012

सफलता का मूलमंत्र....प्रिन्स कुमावत भारतीय

सफलता कौन व्यक्ति ऐसा है जो सफल होना नही चाहता औऱ सफल व्यक्ति का जीवन भी सफल माना जाता है आजकल लोग सामान्य कार्य व्यवहारों को ही सफलता मान लेते है हाँ यह सही है कि यह भी सफलता का ही एक रुप है किन्तु फिर भी जीवन की सम्पूर्ण सफलता हमारे आध्यात्म के अनुसार तब मानी जाती है जवकि व्यक्ति जन्म मरण के बन्धन से दूर होकर मोक्ष प्राप्त कर ले।ये बात हम आध्यात्म में जाकर कह रहे हैं लेकिन हमारा धर्म व्यक्ति को इस लोक व परलोक दोनो में सफल बनाना चाहता है तो हमारा भारतीय चितंन इन दोनो प्रकार की सफलताओं के लिए व्यक्ति को कैसे दर्पण दिखात है देखिये मेरे फेसवुक के मित्र श्री प्रिंस कुमावत की यह पोस्ट - ज्ञानेश कुमार वार्ष्णेय
 
विदुरजी(विदुर जो कौरवो और पांडवो के काका तथा धृतराष्ट्र एवं पाण्डु के भाई थे। उनका जन्म एक दासी के गर्भ से हुआ था। विदुर को धर्मराज का अवतार भी माना जाता है।) द्वारा बताये इस मूलमंत्र को यदि हम अपने जीवन में उतार लें तो हमारे परम सौभाग्य का मार्ग खुलते देर नहीं लगेगी।

उत्थानं संयमो दाक्ष्यमप्रमादो धृतिः स्मृतिः।
समीक्ष्य च समारम्भो विद्धि मूलं भवस्य तु।।

' उद्योग, संयम, दक्षता, सावधानी, धैर्य, स्मृति और सोच-विचारकर कार्यारम्भ करना-इन्हें मूलमंत्र समझिये। '

(महाभारतः उद्योग पर्वः 39.38)
उद्योग का स्थूल अर्थ है उत्तम। अपने कार्य में तत्पर रहना चाहिए। व्यक्ति को कर्तव्यपरायण अर्थात् कर्मठ होना चाहिए। जो काम जिस समय करना है उसे उसी समय कर डालना चाहिए, चाहे कार्य छोटा ही क्यों न हो।

काल करै सो आज कर, आज करै सो अब।
पल में परलय होयगी, बहुरि करेगा कब।।

व्यक्ति को मानसिक परिश्रम के साथ शारीरिक परिश्रम भी करना चाहिए।

प्रायः मानसिक परिश्रम करने वाले व्यक्ति शारीरिक परिश्रम करना छोड़ देते हैं, जिससे कई बीमारियाँ उन्हें आ घेरती हैं। अतः शारीरिक परिश्रम करना ही चाहिए, फिर वह चाहे व्यवसाय, दौड़ सेवा आदि कोई भी माध्यम क्योंन हो।

आलसी प्रमादी न होकर कर्तव्यपरायण होना चाहिए।

जो सांसारिक सफलता पाने को ही उद्योग मानते हैं, वे अति तुच्छ मति के होते हैं। वास्तविक उद्योग क्या है ?

शरीर से दूसरों की सेवा, कानों से सत्संग-श्रवण, आँखों से संत-भगवंत के दर्शन, मन से परहित चिंतन, बुद्धि से भगवान को पाने का दृढ़ निश्चय और हृदय में भगवत्प्रेम की अविरत धारा यही वास्तविक उद्योग है।

दूसरा गुण है संयम। जिसमें इन्द्रियों का संयम, वाणी का संयम, संकल्प-विकल्पों का संयम मुख्य है।

इसमें दीर्घ ॐकार का जप बड़ा लाभदायी है, श्वासोच्छ्वास की गिनती बड़ी हितकारी है।

जिसके जीवन में संयम नहीं है वह पशु से भी गया बीता है। उसका मनुष्य-जीवन सफल नहीं होता। पशुओं के लिए चाबुक होता है परंतु मनुष्य को बुद्धि की लगाम है। सरिता भी दो किनारों से बँधी हुई संयमित होकर बहती है तो वह गाँवों को लहलहाती हुई अंत में अपने परम लक्ष्य समुद्र को प्राप्त हो जाती है।

ऐसे ही मनुष्य-जीवन में संयम के किनारे हों तो जीवन-सरिता की यात्रा परमात्मारूपी सागर में परिसमाप्त हो सकती है।

दक्षता जीवन का अहम पहलू है। जितना आप कार्य को दक्षता से करते हैं, उतनी आपकी योग्यता निखरती है।

यदि आप कोई कार्य कर रहे हैं तो उसमें पूरी कुशलता से लग जाईये। लेकिन व्यावहारिक दक्षता के साथ-साथ आध्यात्मिक दक्षता भी जीवन में आवश्यक है। दो कार्यों के बीच में थोड़ी देर शांत होना चाहिए।

सावधान यह सबसे महत्त्वपूर्ण सदगुण है। जीवन में दक्षता आने पर सावधानी सहज रूप से बनी रहती है।

कहावत है कि सावधानी हटी तो दुर्घटना घटी और सावधानी बढ़ी तो दुर्घटना टली। कार्य में लापरवाही सर्वनाश ही लाती है। जिस प्रकार यदि जहाज कापायलट सावधान है तो यात्रियों को गंतव्य तक पहुँचा देगा और यदि उसने असावधानी दिखायी तो उसकी लापरवाही यात्रियों की मृत्यु का कारण बन जायेगी।

किसी बाँध के निर्माण में यदि इंजीनियर ने लापरवाही की तो हजारों-लाखों लोगों के जान-माल और लाखों-करोड़ों रूपयों की हानि होगी। जीवन में लापरवाही जैसा और कोई दुश्मन नहीं है।

किसी भी कार्य को करते समय धैर्य रखो। उतावलेपन से बने बनाये काम भी बिगड़ जाते हैं।

मन को समझाना चाहिएः
बहुत गयी थोड़ी रही, व्याकुल मन मत हो।
धीरज सबका मित्र है, करी कमाई मत खो।।


कोई भी कार्य सोच-समझकर करना ही बुद्धिमानी है।

कहा गया हैः
बिना विचारे जो करै, सो पाछे पछताय।
काम बिगाड़े आपनो, जग में होत हँसाय।।

कार्य के प्रारम्भ और अंत में आत्मविचार भी करना चाहिए।

हर इच्छापूर्ति के बाद जो अपने-आपसे ही प्रश्न करे कि ' आखिर इच्छापूर्ति से क्या मिला ?

' वह दक्ष है। ऐसा करने से वह इच्छानिवृत्ति के उच्च सिंहासन पर आसीन होने वाले दक्ष महापुरुष की नाईं निर्वासनिक नारायण में प्रतिष्ठित हो जायेगा।

साथ ही यह स्मृति हमेशा बनाये रखनी चाहिए कि ' जीवन में जो भी सुख-दुःख आते हैं वे सब बीत रहे हैं, इन सबको जानने वाला मैं साक्षी चैतन्य आत्मा सदैव हूँ। '

उपरोक्त सात सदगुणों को जीवन में अपनाना ही सफलता का मूलमंत्र है।

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॥॥सत्यमेव जयते॥॥

जय महाकाल!
जय हिन्दू!
जय हिन्दूस्तान!
साभार :- प्रिन्स कुमावत.
(एस. एस. जैन सुबोध महाविद्यालय, जयपुर,राजस्थान। )

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