Sunday, October 21, 2012

सरकारी डिक्सनरी से आखिर क्यों नहीं हटाते धर्म और जाति बोधक शब्द?


भारत को धर्म निरपेक्ष ऱाष्ट्र घोषित कर धर्म निरपेक्षता की मनमानी परिभाषा गणना ऱाजनीतिज्ञों के वाऐ हाथ का खेल है।लैकिन जो परिभाषा गड़ी है उस पर तो बने रहो उसे भी परिवर्तित करते रहते हों तुम्हारी इस परिभाषा के चलते भारता का आम आदमी दोयम दर्जे का नागरिक बन गया है। उसके सारे अधिकार अल्पसंख्यक नाम से केवल दो समाज ही खा रहें हैं वाकी अल्पसंख्यक तो केवल संख्या बढ़ाने के लिए इस समुदाय में जोड़ दिये गये हैं।
सरकार के इसी ढोंग को प्रदर्शित करता यह लेख श्री सुभाष कांडवाल जी ने लिखा हैं जिसे मैने आपके लिए इस राष्ठ्रधर्म के मंच पर लाया हूँ।उनके ब्लाग की अन्य पोस्ट पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें
आजकल सरकार का हमेशा एक ही तरह का ब्यान आ रहा है कि भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के साथ सांप्रदायिक ताकतों जैसे संघ परिवार, बी जे पी, विश्व हिन्दू परिषद् आदि संघठनों का हाथ है, चाहे उस मुहिम का नेतृत्व बाबा रामदेव कर रहे हों या चाहे गाँधी वादी अन्ना हजारे. हमारी कोंग्रेस सरकार को हर जगह संघ और बी जे पी ही नजर आती है. अब सवाल ये उठता है कि यदि बी जे पी और आर आर अस जैसे संघठन सांप्रदायिक हैं और देश में सांप्रदायिक आतंकवाद फैलाते हैं या फ़ैलाने की कोशिश करते हैं तो क्यों आज तक इस प्रकार के खिलाप कार्यवाही नहीं की गयी? क्यों आज तक इस प्रकार के संघठनों की मान्यता को रद्द नहीं किया गया?
दूसरा सबसे बड़ा प्रश्न है, अगर सभी लोग ये मानते और चाहते है कि देश से सम्प्रदाय वाद और जाति वाद ख़त्म होना चाहिए तो क्यों सरकारी तंत्र सरकारी स्तर पर इन सबको बढ़ावा और प्रशय दे रहा है. आखिर क्यों नहीं सरकारी डिक्सनरी से धर्म और जाति बोधक शब्दों को हटाया नहीं जाता है. क्यों आज भी सरकारी काम काजों में इस प्रकार के शब्दों का बहुतायत मात्र में प्रयोग हो रहा है. क्यों धर्म और जाति के नाम पर विभिन्न संघटन बनाए गए है जिनको सरकार का प्रत्यक्ष रूप से समर्थन और आश्रय प्रदान होता है. धर्म के नाम पर दुनिया भर के आयोग सरकार द्वारा बनांये गए हैं मुझे नाम गिनाने की कोई आवश्यकता नहीं है.  कोई भी ऐसा छोटा बड़ा धर्म, सम्प्रदाय नहीं है जिन पर कोई न कोई सरकारी आयोग नहीं बना हुआ हो. आखिर क्या जरूरत है इन धर्म विशेष सामाजिक संघठनों का? क्यों आज भी सरकारी स्तर पर हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई, बौध, जैन, दलित, ब्राहमण, क्षत्रिय…आदि शब्दों का प्रयोग किया जाता है. क्या ये संघठन और शब्द साम्प्रदायिकता के दायरे में नहीं आते है? क्यों नहीं सरकार इस प्रकार के संगठनों को बंद कर देती है और कोई ऐसा आयोग बनाती है जिस पर किसी धर्म विशेष का “टैग” न लगा हो और जो भारत के सभी वर्गों और सभी धर्मों के लोगों के लिए निष्पक्ष रूप में काम करे?
ये तर्क देना कि समाज के निर्बल वर्ग को सबल बनाने के लिए इस प्रकार के आयोगों का गठन करना जरूरी है, अपने आप में कई प्रश्न चिह्न खड़े करता है. जाति और धर्म के नाम पर किसी विशेष सम्प्रदाय का भला करना और किसी विशेष सम्प्रदाय/जाति के लोगों को उपेक्षित करना, अपने आप में कितना उचित है, ये आज सोचने का वक्त आ गया है. दोहरे मापदंड केवल राजनीति के लिए ही अच्छे होते है सामाजिक उत्थान के लिए नहीं. अगर समाज के निर्बल और उपेक्षित वर्ग को सबल और समाज की मुख्या धारा में लाना है तो “आर्थिक स्तिथि” को मापदंड बनाना होगा न कि धर्म और जाति को.
मैं तो यही कहूँगा कि कम से कम सरकारी स्तर पर धर्म और जाति बोधक शब्दों पर बिलकुल बैन लगा देना चाहिए. सरकार की नजर में सब बराबर होने चाहिए, कोई भेद-भाव वाला आचरण कम से कम सरकारी तंत्र में नहीं होना चाहिए, तभी इस देश से “सांप्रदायिक” शब्द का समूल विनाश हो सकता है अन्यथा नहीं.
अंत में यही कहूँगा जब तक सरकार खुद इस प्रकार के कोई कदम नहीं उठाती तो ये कहना कि अमुक संघठन सांप्रदायिक है, कितना उचित है ये आप सभी लोग भली भांति समझते हैं.

1 comment:

  1. कृपया हमें www.gyanipandit.com राष्ट्रधर्म ब्लाग एग्रीगेटर के आपके ब्लॉग लिस्ट मैं शामिल करे, धन्यवाद

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