Saturday, October 27, 2012

शिकागो सम्मेलन मे स्वामी विवेकानन्द (निबंध -हिन्दु धर्म)

आज का समाज  जिसे इतिहास मानता है उस युग से पहले के दुनिया में आज केवल तीन धर्म ही मौजूद हैं जिनमें प्रथम हिन्दु धर्म,द्वितीय यहूदी व तृतीय पारसी धर्म ।प्रचण्ड आघातों को सहकर भी जीवित बने होना इन तीनों धर्मों की आंतरिक सामर्थ्य का ही प्रमाण है।हम जानते हैं कि ईसाई धर्मे के प्रवल आघातों को ही नही अपितु नव उत्पादित इस्लाम के खतरनाक पंजो से बचकर भी खुद को निर्वासित कर इस महान धर्म ने अपने आप को बचाए रखा तथा इसी प्रकार प्रसिद्ध फारस का जर्थुस्त द्वारा प्रचारित पारसी समाज भी प्रवल झंझावातो को झेलता हुआ अभी तक विद्यमान है।यहूदियों ने फिर भी अपना पूर्व स्थान येरुशलम प्राप्त कर लिया हो किन्तु पारसी आज भी चाहै भटक ही क्यों न रहें हों किन्तु अपने आप को बचाए अवश्य रखा है।
परन्तु भारत की भारत माता की तथा भारत के प्रमुख धर्म हिन्दु की जिजीविशा के तो कहने ही क्या ।अनेको प्रवलतम झंझावातो ही नही महानतम तूफानों के प्रवल थपेड़ो को खाकर जहाँ अनेको सभ्यताऐं यथा यूनान,मिश्र या मेसोपोटामिया,रोम आदि की सभ्यताऐ नेस्तनाबूद ही हो गयी वही हमारी सभ्यता हमारा धर्म हमारी मान्यताऐं ज्यों की त्यों आज भी जिन्दा हैं।
अगर यहूदी व पारसियों की बात करे तो ये भी आज केवल अवशेष मात्र ही हैं वहीं एक के बाद एक करते हुऐ अनेकों धर्म पंथो का उदभव भारत भूमि में हुआ औऱ वे समय समय पर इस वेद प्रणीत हिन्दु धर्म को जड़ से हिलाते हुये से प्रतीत हुऐ पर अन्ततः अपनी जन्म दात्री हिन्दु धर्म की विराट काया ने उन्हैं अपने में आत्म सात कर लिया।
आधुनिक विज्ञान के नवीन तम आविस्कार जिसकी केवल प्रतिध्वनि मात्र हैं ,ऐसे वेदान्त के अच्युत भाव से लेकर सामान्य मूर्तिपूजा,अनेकानेक पौराणिक कहानियो किवदंतियों और यही नही वोद्धों के अज्ञेयवाद तथा जैनों के निरीश्र्वर वाद के लिए भी हिन्दुधर्म में स्थान दिया गया है।तव प्रश्न उठता है कि वह कौन सा आधार है जिस पर इतने परस्पर विरोधी भासने वाले ये सब भाव आश्रित हैं इन्हीं प्रश्नों का उत्तर स्वामी विवेकानन्द जी ने दिया है।जो बातें उन्हौने शिकागो अधिवेशन के मंच से 19 सितम्बर 1893 को अपने निवंध में कही थी।
                   
1-यह सृष्टि अनादि है।
     स्वामी जी ने कहा- हिन्दु जाति ने अपना धर्म अपौरुषेय वेदों से प्राप्त किया है।उनकी धारणा है कि वेद अनादि व अनंत हैं। संभव है कि यह हास्यास्पद मालूम हो।कोई पुस्तक अनादि व अनंत कैसे हो सकती है.परन्तु वेद का अर्थ है भिन्न भिन्न कालों में भिन्न भिन्न व्यक्तियों द्वारा आविस्कृत आध्यात्मिक तत्वों का संचित कोष।जिस प्रकार गुरुत्वाकर्षण  का सिद्धान्त मनुष्यों के पता लगने से पहले भी अपना काम करता था औऱ आज उसे मनुष्य जाति उसे भूल भी जाए तो भी वह नियम काम करता रहेगा।ठीक वही बात आध्यात्मिक जगत को चलाने के सम्बंध में भी है।एक आत्मा का दूसरी आत्मा के साथ और प्रत्येक आत्मा का  परम पिता परमात्मा के साथ जो नैतिक दिव्य आध्यात्मिक संबंध है,वे हमारे पूर्व भी थे और हम उन्है भूल भी जाए तो भी वे बने रहेंगे।इन नियमों को या सत्यों को आविस्कृत करने वाले ऋषि कहलाते हैं और हम उनको पूर्णत्व को पहुँची हुयी आत्मा मानकर सम्मान देते हैं।यहाँ कोई यह कह सकता है कि ये आध्यात्मिक नियम,नियम के रुप में अनंत भले ही हो ,किन्तु इनका आदि तो होना चाहिये।वेद हमें यह सिखाते हैं कि सृष्टि का न आदि है न अन्त (अतऐव इन नियमों व सिद्धान्तों का भी न आदि है न अन्त ।विज्ञान ने हमे यह कर दिखाया है कि समग्र विश्व की सारी शक्ति समष्टि का परिणाम सदा एक सा रहता है।(द्रव्य की अविनांशता का नियम-यह मैनेअर्थात ज्ञानेश ने अपने विवेक से डाल दिया है  )तो फिर यदि ऐसा कोई समय था जब किसी वस्तु का अस्तित्व ही नही था ,उस समय यह सम्पूर्ण व्यक्त शक्ति कहाँ थी? कोई कोई कहते है कि ईश्वर में ही वह सब अक्रिय रुप से निहित थी तब तो कोई ईश्वर कभी निश्क्रिय औऱ कभी सक्रिय है, इससे तो विकार शील हो जाएगा।प्रत्येक विकार शील पदार्थ मिश्रित होता है और हर एक  मिश्रित पदार्थ मे वह परिवर्तन अवश्यंभावी है,जिसे हम विनाश कहते हैं।इस प्रकार तो प्रभु की मृत्यु ही हो जाएगी।जो कि सर्वथा असंभव एवं हास्यास्पद कल्पना है।अतः ऐसा समय कभी नही था,जब यह सृष्टि नही थी।यह सृष्टि अनादि है।
मनुष्य के पूर्व जन्म कृत कर्म ही उसका स्वभाव व उसका भाग्य बनाते हैं।
            कुछ लोग जन्म से सुखी होते हैं,पूर्ण स्वास्थ्य का आनंद भोगते हैं,उन्है सुंदर शरीर,उत्साह पूर्ण मन और सभी आवश्यक सामिग्रियाँ प्राप्त होती हैं।दूसरे कुछ लोग जन्म से दुःखी होते हैं,किसी के हाथ पाँव नही होते हैं तो कोई जन्म से मूर्ख होते हैं,और येन केन प्रकारेण अपने दुखमय जीवन के दिन काटते हैं ऐसा क्यों ?
यदि ये सभी एक ही न्यायी औऱ दयालु ईश्वर ने उत्पन्न किये हों,तो फिर उसने एक को सुखी व दूसरे को दुखी क्यों वनाया?भगवान एसा पक्षपाती क्यों है?फिर ऐसा मानने से भी बात नही सुधर सकती कि जो इस वर्तमान
जीवन में दुखी हैं वे भावी जीवन में भी पूर्ण सुखी रहेगें।न्यायी और दयालु भगवान के राज्य में मनुष्य इस जीवन में भी दुःखी क्यो रहे?दुसरी बात यह है कि सृष्टि उत्पादक ईश्वर को मान्यता देने वाला यह सिद्धांत सृष्टि मे इस वैषम्य के लिए कोई कारण बताने का प्रयत्न ही नही करता ,बल्कि वह तो केवल एक सर्वशक्तिमान स्वेच्छाचारी पुरुष का निष्ठुर व्यवहार ही प्रकट करता है।इस प्रकार यह स्पष्ठ ही है कि यह कल्पना युक्ति विरुद्ध है।अतएव यह स्वीकार करना ही होगा कि इस जन्म के पूर्व ऐसे कारण होने ही चाहिए,जिनके फलस्वरुप मनुष्य इस जन्म में सुखी या दुखी हुआ करता है। औऱ ये कारण है उनके ही पूर्वानुष्ठित कर्म।
            मनुष्य के शरीर औऱ मन की गठन उसके पिता पितामह आदि के शरीर मन के अनुरुप होती है,ऐसा आनुवंशिकता का सिद्धान्त क्या उपर्युक्त समस्या का समुचित उत्तर न होगा ? यह स्पष्ठ है कि जीवन स्रोत जड़ और चैतन्य इन दो धाराओं में प्रवाहित हो रहा है।यदि जड़ और जड़ के विकार ही आत्मा,मन,वुद्धि आदि हम जो कुछ हैं उन सब के उपयुक्त कारण सिद्ध हो सकते तो फिर औऱ स्वतंत्र आत्मा के अस्तित्व को मानने की कोई आवश्यकता ही न रह जाती।अवस्य यह स्वीकार नही किया जा सकता कि कुछ शारीरिक प्रवर्तियाँ  माता पिता से प्राप्त होती हैं।पर इनका संबंध केवल शारीरिक गठन से है,जिसके द्वारा जीवात्मा की कोई विशेष प्रवृति  प्रकट हुआ करती है।उसकी इस विशेष प्रवृति विशेष का कारण उसी के पूर्वकृत कर्म हुआ करते हैं।एक विशेष प्रवृति वाला ''जीवात्मा योग्य योग्येन युज्यते'' के अनुसार उसी शरीर में जन्म ग्रहण करता है जो उस प्रवृति के प्रकट करने के लिए सबसे उपयुक्य आधार हो।यह पूर्ण तया विज्ञान संगत  है, क्योंकि विज्ञान कहता है कि प्रवृति या स्वभाव अभ्यास से बनता है,और अभ्यास बारम्बार अनुस्ठान का फल है।इस प्रकार एक नवजात बालक की स्वभाविक प्रवर्तियों का कारण बताने के लिए पुनः पुनः अनुष्ठि पूर्व कर्मों को मानना आवश्यक हो जाता है और चूकि वर्तमान जीवन में स्वभाव की प्राप्ति नही की गई,इसलिए वह पूर्व जीवन से ही उसे प्राप्त हुआ है।












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